Sunday 22 January 2012

बीते पलों की तलाश

               समीक्षा
  • -लोकेन्द्र बहुगुणा
बीता हुआ कल चाहे कितना ही कष्टप्रद रहा हो लेकिन उसकी स्मृति झेले हुए उन तमाम कष्टों के बावजूद एक अनिर्वचनीय सुख देती है‎। वर्तमान के झरोखे से अतीत को तलाशती अभिज्ञात की कविताएं ऐसा ही अहसास कराती हैं‎। बीते दिनों की याद को ताजा करने वाला अभिज्ञात की कविताओं का संग्रह 'खुशी ठहरती है कितनी देर' आत्मकेंद्रित व्यस्तताओं के इस दौर में तेज होते जा रहे व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं, समय के साथ बदली जरूरतों और सामाजिक मूल्यों के अंर्तद्वंद को बड़े खूबसूरत अंदाज में पेश करता है‎। 'वापसी', 'इंतजार' और बेटी को इंगित पांच कविताएं 'होली', 'संवाद', 'स्वरलिपियां', 'तुमसे' और 'उपलब्धि' तेजी से बदलते परिवेश के प्रति सजग दृष्टि के बावजूद दर्शाती हैं कि कवि 'नॉस्टैलजिया' में उन सामाजिक मूल्यों से टकराव का अंर्तद्वंद झेल रहा है जो उसे विरासत में मिले हैं।
अभिज्ञात की कविताएं उनके इस आत्मकथ्य को प्रतिबिंबित करती हैं, 'कविता के लिए विचार मुझे आवश्यक लगता है मगर खालिश विचार को कविता नहीं मान पाता‎। कविता में भावुकता दिखनी चाहिए और विचार केवल उसे संचालित, संयमित या दिशा-निर्देश देने वाला तत्व भर हो‎। कविता के लिए भावुकता को मैं विचार से कम मूल्यवान नहीं मान पाता हूं‎।' सहज अभिव्यक्ति इन कविताओं को विशिष्टता प्रदान करती हैं‎। हर कथ्य हमारे इर्दगिर्द मौजूद लगता है जिनसे हम आये दिन दो-चार होते रहते हैं‎। स्मृति पटल पर वे दृश्य ताजा हो जाते है जो अभिज्ञात ने इन कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त किये हैं‎ý
'हावड़ा ब्रिज' कलकत्ता यानी कोलकाता की पहचान भर नहीं है वरन अपने निर्माण के समय से रचनाकारों का पसंदीदा विषय रहा है‎। रचना के हर माध्यम में चाहे व कहानी, कविता या फिल्म हो हावड़ा का पुल बंगाल की समसामयिक घटनाओं का प्रतिनिधि रहा है‎। अभिज्ञात ने हावड़ा ब्रिज के माध्यम से पश्चिम बंगाल के मिजाज और इसके खासतौर से कोलकाता के दैनिक परिवेश काफी सहज ढंग से प्रस्तुत किया है‎। खुशी पाना या खुशी पाने का प्रयास करना स्वाभाविक प्रवृति है‎, खुशी जीने का मकसद भी देती है जैसा कि 'खुशी ठहरती है कितनी देर' में कहा भी गया है, ' शायद खुशी की तलाश में जी जाता है आदमी पूरी - पूरी उम्र‎।' शायद यही वजह है कि अभिज्ञात ने पुस्तक के नाम के लिए इसी कविता को चुना‎। यह संग्रह इसलिए भी दिलचस्प है कि इसमें संकलित कविताएं न केवल सहज अंदाज में वर्तमान का चेहरा पेश करती हैं वरन यह अहसास कराने की कोशिश भी करती हैं कि भूमण्डलीकरण की प्रतिस्पर्धा आम आदमी के सपनों और चाहतों को बड़ी बेदर्दी से लील रही है।
पुस्तक : खुशी ठहरती है कितनी देर
लेखक : अभिज्ञात
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर
मूल्य : 50.00 रुपये
पृष्ट : 88

Thursday 5 January 2012

उन्मुक्त उड़ान है 'खुशी ठहरती है कितनी देर'


साभार: पुस्तक वार्ता 
समीक्षा
  • बद्रीनाथ वर्मा
खुशी ठहरती है कितनी देर, कवि- डॉ. अभिज्ञात, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन एफ 77 सेक्टर 9 रोड नंबर 11,करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर, मूल्य- 50 / रुपये
नहीं जानता कि ठीक किस / ..किस बिन्दु पर पहुंचना होता है आदमी का खुश होना / कितना फर्क होता है दुख और खुशी में / कि खुशी आदमी को किस अक्षांश और शर्तों / और कितनी जुगत के बाद मिलता है / वह ठहरती है कितनी देर / क्या उतनी जितनी ठहरती है ओस की बूंद हरी घासों पर / या उतनी जितनी फूटे हुए अंडों के बीच चूजे। डॉ. अभिज्ञात की सद्यः प्रकाशित काव्य कृति "खुशी ठहरती है कितनी देर" का यह अंश इस बात की विवेचना करता है कि आदमी मृगमरीचिका की तरह ताउम्र खुशी की तलाश में भटकता रहता है। आखिर खुशी है क्या । दरअसल खुशी का संबंध हमारे मन से ही है। 45 कविताओं वाले इस संग्रह से गुजरने के बाद चीजों को देखने का एक नया नजरिया विकसित होता है। डॉ. अभिज्ञात ने छोटे-छोटे बिम्बों के माध्यम से दृश्यों व वस्तुओं को नवीन उपमानों के जरिए नयी अर्थवत्ता प्रदान की है। कविताओं को पढ़ते हुए साफ महसूस होता है कि कवि का हृदय संवेदनाओं से ओतप्रोत है। मानव हृदय की गहरी समझ के साथ उनमें रचनाशीलता कूट कूट कर भरी हुई है। हर्ष, विषाद, पाने- खोने की खुशी और पीड़ा को नये अर्थ बोध प्रदान करती संग्रह की सभी कविताएं पाठक की अपनी जिन्दगी से जुड़ी लगती हैं। कविताएं पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जैसे पाठक के जीवन चक्र की स्मृतियां साकार हो गयी हों। कविताएं पाठक को कभी उनके अल्हड़ बचपन में ले जाती हैं तो कभी जीवन के कटु सत्य से अवगत कराती हैं। प्रत्येक कविता व्यापक संदर्भ लिए हुए है। आलोच्य कृति की रचनाओं में शब्द अपनी सार्थकता सिद्ध करते हैं। दरअसल अभिज्ञात शब्द की सामर्थ्य और उसकी शक्ति को बखूबी पहचानते हैं। उन्होंने इन्हें अपनी कविताओं में इस कदर प्रतिष्ठापित किया है कि उसका प्रभाव विभिन्न मनोहारी बिम्बों के साथ अनेक नवीन अर्थों को जन्म देता प्रतीत होता है। "खुशी ठहरती है कितनी देर" को पढ़कर यह स्पष्ट आभास होता है कि कवि ने पूरी तन्मयता से इस कृति का सृजन किया है। उन्होंने परम्परा के साथ जो नवीन प्रयोग किये हैं वे उन्हें इस दौर के सर्वाधिक प्रगतिशील और सिद्ध कवि के रूप में प्रतिष्ठापित करते हैं। उन्हें पढ़ते हुए लगता है कि हम बाबा नागार्जुन को पढ़ रहे हैं। उन्हीं के जैसी शब्दों पर पकड़ व संवेदनाओं की समझ साफ दृष्टिगोचर होती है। कहीं-कहीं तो वे नागार्जुन को भी पीछे छोड़ते प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि आलोच्य कृति को पढ़ते समय पूरी शिद्दत से महसूस होता है कि हम इस दौर के सर्वश्रेष्ठ कवि की रचनाओं से साक्षात्कार कर रहे हैं। कविताओं में प्रयुक्त शब्द ब्रह्म सा जीवंत हो उठे हैं। वे इतने स्वाभाविक और सामयिक लगते हैं जिसकी अन्य किसी से तुलना ही नहीं हो सकती। कविताओं में प्रयुक्त ठेठ भोजपुरी के कई शब्द कविता के भावों को और अधिक गहराई प्रदान करते हैं। चूंकि कवि का कार्यक्षेत्र पश्चिम बंगाल खासकर कोलकाता है इसलिए वहां बात-बात पर आये दिन होने वाले बंद व हड़ताल की व्यथा से वे बखूबी वाकिफ हैं। इसी को परिभाषित करती कविता हावड़ा ब्रिज सिर्फ कविता न होकर बंगाल की संस्कृति को अपने में समेटे हुए है। बंद के दौरान हावड़ा ब्रिज से गुजरना / किसी बियाबान से गुजरना है महानगर के बीचोबीच / बंद के दौरान तेज तेज चलने लगती है हवाएं / जैसे चल रही हो किसी की सांसे तेज तेज / और उसके बचे रहने को लेकर उपजे मन में रह रह कर संशय / बंद के दौरान बढ़ जाती है ब्रिज की लंबाई / जैसे डूबने से पहले होती जाती है छायाएं लंबी और लंबी / बंद में कभी गौर से सुनो तो सुनाई देती है एक लंबी कराह / जो रुकने की व्यवस्था के विरुद्ध उठती है ब्रिज से / और पता नहीं कहां कहां से, किस किस सीने से / प्रतिदिन पल पल हजारों लोगों और वाहनों को / इस पार से उस पार ले जाने वाले ब्रिज के कंधे / नहीं उठा पा रहे थे अपने अकेलेपन का बोझ। कवि के शब्दों में कविता ऐसी विधा है जो रचनाकार को रचना का सृजन करने की पूरी आजादी देती है। और कवि ने इस आजादी को संवेदनाओं के पंख देकर भरपूर उड़ान भरी है। निशान कविता में मेरी पीठ सहसा तब्दील हो जाती है दीवार में/ और दीवार भी शायद बदल जाती है मेरी पीठ में/ मैं चुपके से अक्सर सहला आता हूं/ उस दीवार को/ जैसे मैं अपनी पीठ पर ही/ हाथ फेर रहा होऊं। अपनी पीठ की तुलना दीवार से करते हुए कवि ने इसमें संवेदनाओं के उच्च शिखर को छुआ है। इसी तरह संग्रह की एक और कविता बेटी के लिए की ये पंक्तियां- मैं तेरे खेल का गवाह हूं / मैं तेरे हर खेल का मददगार हूं / क्योंकि तू मेरा खेल है / मैं तेरा चेहरा लगाकर छुप गया हूं तेरे अंदर / तू मेरे अंदर है दूसरी काया होकर भी / इसी तरह स्वरलिपियां शीर्षक कविता में- नहीं चाहता बदलना / उन आलमारियों का रंग जिन पर तुमने / चाक से ककहरा लिखना सीखा था / कि मैं कहीं खुद उधड़ने की पीड़ा का दंश ना झेल लूं / नहीं चाहता कि उधेड़े जायें वे स्वेटर / जो तुमने पहने थे अपनी शुरुआती सर्दियों में / नहीं फेंकना चाहता वह कूड़े का अंबार / जो तुम्हें कभी तुम्हारी पहली जिज्ञासाओं / और अबूझ दुनिया का आकर्षण रही / पता नहीं कहां क्या छिपा हो / और तुम्हें / एकाएक मिल जाये / और तुम्हें लगे अरे यह तुम थी / और यह कभी था तुम्हारी दुनिया का अभिन्न अंग / इसी कविता में आगे की ये पंक्तियां- इसलिए मैं चाहता हूं कायम रहे स्मृतियां / आखिरकार तुम्हें जाना ही है किसी और घर/ और हमें रहना होगा स्मृतियों के सहारे / जो असह्य पर तय सा है / आदमी का दुनिया से / और बेटी का अपने ही घर से विदा होना / और हमे तो दोनों के लिए तैयार होते रहना है तिलतिल । अपनी बेटी में अपना बचपन देख रहे एक पिता को यह अहसास है कि बेटी ब्याह के बाद अपने घर चली जायेगी । उसकी स्मृतियों को सहेज कर रखने के लिए व्यक्त अभिव्यक्ति पाठक को भावविह्वल करते हुए संवेदनाओं को गहरे झकझोरती है। इसमें व्यक्त भाव जिस शिद्दत से उभरकर आये हैं वह दिल को छू जाती है। / 45 कविताओं वाले इस संग्रह में जीवन संगीत पूरे रौ में गूंजता है। कविता में कहीं रिश्तों की मिठास है तो कहीं अपने जड़ों से उखड़ने का दर्द। और इन सारी ही स्थितियों को डॉ. अभिज्ञात ने पुरजोर स्वर दिया है।देश की पहचान रहे हमारे गांव भी कहीं खोते से जा रहे हैं। गांवों की पहचान रहे बैलों के गले की मधुर घंटी आधुनिकीकरण की भेंट चढ़ते जा रहे हैं। बैलों की जगह अब ट्रैक्टरों ने ले ली है ।और जब बैल ही नहीं रहे तो नादों को सूना पड़ना ही था। सुबह होते ही खेतों की जुताई के लिए जा रहे बैलों के गलों से गूंजती घंटियों की आवाजें गांवों से गुम हो गयी है। गांवों की पहचान रही चैता और कजरी जैसे लोकगीतों की जगह फूहड़ फिल्मी गीतों ने ले ली है। शहरों की चकाचौंध व रोजी-रोटी की तलाश में गांवों से पलायन ने गांव की पहचान को संकट में ला दिया है। अगर कुछ बचा है तो वह है अन्तहीन इन्तजार। किसी को इन्तजार है कि गांव का वह पुराना गौरव फिर कब लौटेगा। लौटेगा भी या नहीं। इस पीड़ा को डॉ. अभिज्ञात ने इन्तजार शीर्षक कविता में बखूबी स्वर दिया है। कुल मिलाकर खुशी ठहरती है कितनी देर संग्रह की कविताएं अन्तस्थल में गहरे उतरकर ठहर जाती हैं।यह डॉ. अभिज्ञात की सफलता है कि कविताएं पाठक को खुद से जोड़ लेती हैं। आलोच्य कृति की रचनाएं अपने आसपास की ही लगती हैं। लगता है जैसे हमने ही तो इसे जिया है। प्रत्येक कविता व्यापक संदर्भ को व्याख्यायित करती है।
- बद्रीनाथ वर्मा डी / 150 सोनाली पार्क, बांसद्रोनी, कोलकाता- 700070

Monday 2 January 2012

डेली न्यूज में खुशी ठहरती है कितनी देर की चर्चा

एक बेहद पठनीय संग्रह










विजय बहादुर सिंह की प्रतिक्रिया: कुछ अंशः
आपकी कविता-पुस्तक मिली। उलट-पुलट गया। कविताओं को पढ़ते हुए जो नये अनुभव-समूह और विचार-तरंगें हैं, वे अच्छी लगती हैं, बावजूद अपनी अनगढ़ताओं के। हां, 'हावड़ा ब्रिज' जैसी रचनाएं आपकी काव्य-प्रतिभा की ताकत और संभावनाओं की ओर इशारा करती है तथापि डायनासोर वाली कल्पना से न जाने क्यों मन सहमत नहीं हो पा रहा है।
संग्रह की कविताओ में पढ़ा ले जाने का आकर्षण है, यह मैंने महसूस किया है। यह भी कि आपका कवि स्वाधीन है और किसी आग्रह से पहले से बंधा नहीं है। यही आपका सौन्दर्य है जो जीवनानुभवों के प्रति हमारा ध्यान खींचता है। पाठक की एकरसता और काव्य-ऊब टूटती है।
यह भी आप अच्छा कर रहे हैं जो मुक्तवृत्तों को संगीतात्मक लयात्मकता की ओर ला रहे हैं। कतिपय नये शब्द-प्रयोग, जैसे 'संवाद रहित ठंडक' (पृष्ठ 64), 'अर्ध विराम' का सरलीकरण (पृष्ठ 30), 'नुकीले संतोष' (31), 'मुलायम आस्वाद' (31)। मुझे ये पंक्तियां खूब मार्मिक लगीं-'खेतों को कितना सालता होगा बैलों का अभाव'(58)। सबसे पसंद आयी कविता-'निहितार्थ के लिए'। पर यह और भी अच्छा लगा कि आपने एक कवि के रूप में अपनी संवेदना की आंखें खोल रखी है और वे अपने अनुभवों की ताज़गी से भरी हुई हैं। बधाई। बहुत सारे संग्रहों में यह एक बेहद पठनीय संग्रह है।

Saturday 31 December 2011

कविताएं जो जेहन में ठहरती हैं देर तक

पुस्तक-समीक्षा
-राजेश त्रिपाठी
पुस्त – खुशी ठहरती है कितनी देर (कविता-संग्रह), लेखक- अभिज्ञात, मूल्य-50 रुपये, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, एफ-77, सेक्टर-9, रोड नंबर 11,करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर-302006।

किसी भी रचना की सार्थकता इस बात पर निर्भर करती है कि वह पढ़ने वाले के जेहन में ठहरती है कितनी देर तक। क्षण भर में काफूर हो जाती है या दिल-दिमाग में उतर कर उससे संवाद करती है। डॉ। अभिज्ञात के कविता-संग्रह खुशी ठहरती है कितनी देर की कविताएं पाठक के जेहन में सिर्फ देर तक ठहरती हैं, बल्कि उससे संवाद करती हैं। अभिज्ञात की कविताओं से गुजरना कहीं अपने अतीत के उन कालखंडों को जीने के समान है, जो हम पीछे छोड़ आये हैं पर जो हमारे अंतर में कहीं एक अमिट शिलालेख की तरह टंक गये हैं। कवि का शिल्प, कथ्य, शैली और शब्द संयोजन सब इतना सधा-सुलझा और असरदार है कि हर कविता में एक नयी जिंदगी धड़कती मिलती है। कविता का एक-एक शब्द जैसे पढ़नेवाले से संवाद करता चलता है। उसके स्वत्व से उसका परिचय कराता हुआ।
कवि में अपनी बात बेबाक, बेलाग पर सलीके से कहने का माद्दा है और उसकी यही खूबी कविताओं की जान है। संग्रह की किसी भी कविता में न विषय की पुनरावृत्ति है न ही एक-सा अंदाजे बयां। विषय कुछ इतना नया, कथ्य कुछ इतना अनोखा कि कई कविताएं तो आपको चमत्कृत कर देंगी। कुछ आपको अपनी हमसाया-सी लगेंगी, कुछ आपसे अठखेलियां करती हुईं तो कुछ सपनों का नया संसार रचती हुईं। कुछ ऐसी जो जाते-जाते आपके सामने छो़ड़ जाती हैं प्रश्नों के दुर्गम विंध्याचल।
यथार्थ के धरातल पर रची गयी कविताओं का शिल्प सशक्त, बुनावट चुस्त-दुरुस्त है। कविताओं की एक विशेषता यह भी है कि इनमें से कुछ की आखिरी पंक्तियां आपको चमत्कृत कर जाती हैं। कवि निरर्थक शब्दजाल नहीं बुनता बल्कि पाठक को हर उस सच से साक्षात्कार कराता है जो जितना कवि है, उतना उसका भी है। यही वजह है कि इनसे पाठक अपना तादाम्य स्थापित कर पाता है, इनमें अपने को महसूससता है। यह कवि की अनूठी कल्पनाशक्ति और नायाब कविताई का ही कमाल है कि विषयवस्तु की दृष्टि से कुछ कविताएं अद्भुत हैं। उनकी शुरुआती पंक्तियां पढ़ कर आप कहेंगे –अरे यह क्या लिख डाला पर अंत तक आते-आते आप यह कहने को विवश होंगे-वाह! क्या लिखा डाला। मिसाल के तौर पर संग्रह की ‘तैयारी’ कविता जो आपको हतप्रभ करती है जिसमें धुले कपड़े इस तरह संवाद करते से लगते हैं जैसे उनमें जान हो। आपसे उनका वैसा ही तादाम्य हो जैसे वे आपके अनन्य-अभिन्न हों, सुख-दुख के मूक साक्षी। इन पंक्तियों पर गौर करें-‘उनका साफ होना एक साथ / होना इस्तिरी / रखा जाना किसी आलमारी या सूटकेस में /डराने लगा / जैसे कि वे कर बैठेंगे कोई गुप्त मंत्रणा।’
रचनाओं की एक विशेषता यह भी है कि कहीं-कहीं आप इनसे पुलकित और द्रवित हो जाते हैं। किस तरह रचनाकार एक निर्जीव वस्तु से ऐसा तादाम्य, ऐसा अपनापा स्थापित कर लेता है, जैसे वह खुद उसमें ही ढल गया हो। ‘निशान’ कविता में घर की जड़ दीवार से कवि को इतना लगाव है जैसे वह उसी का एक अंग हो-‘ उस दिन से कई बार मुझे लगा / मेरी पीठ सहसा तब्दील हो जाती है दीवार में/और दीवार भी शायद बदल जाती है मेरी पीठ में/ मैं चुपके से अक्सर सहला आता हूं/ उस दीवार को/ जैसे मैं अपनी पीठ पर ही/ हाथ फेर रहा होऊं।’
हम में से शायद हर एक आखिरी सांस तक उस खुशी की तलाश में रहता है जो कदम दर कदम उसके साथ चलती है लेकिन वह उसे पहचान नहीं पाता। उस कस्तूरी मृग की तरह जो नाभि में कस्तूरी लिये उसे जंगल-जंगल खोजता फिरता है। संग्रह की शीर्ष कविता ‘खुशी ठहरती है कितनी देर’ व्यामोह में जीते ऐसे लोगों पर ही सवाल करती है-‘शायद खुशी की तलाश में जी जाता है आदमी/ पूरी-पूरी उम्र / और यह सोच कर भी खुश नहीं होता/ जबकि उसे होना चाहिए / कि वह तमाम उम्र/ खुशी के बारे में सोचता/ और जीता रहा / उसकी कभी न खत्म होने वाली तलाश में।’
कवि के हृदय में अपने पीछे छोड़ आये लमहों की कसक है जिन्हें वह बार-बार जीना चाहता है। उसे गांव के पनघट, अमराइयां वापस बुलाती हैं। उसकी रग-रग में दौड़ती हैं मीठे दिनों की यादें जिन्हें वह अपनी परछाईं, अपने ही प्रतिरूप के माध्यम से फिर जीना चाहता है। ‘तुमसे’ शीर्षक कविता की इन पंक्तियों पर गौर करें-‘मैं चाहता हूं अपने गांव की गांगी नदी के पानी में/ फिर से धींगामस्ती करना तुम्हारे माध्यम से/ जहां तुम कभी नहीं गयीं/ चाहता हूं तुम मेरे गांव एक बार जरूर जाओ/ यकीन है अमराई तुम्हें भी पहचान लेगी/ मेरे बिन बताये और तुम भी बिना किसी से पूछे/ पहुंच जाओगी उन सभी जगहों पर जहां मैंने/ अपना बचपन खोया है/ और उसे खोजना तुम्हें भी अच्छा लगेगा।’
संग्रह में बेटी के लिए कुछ भावाभिव्यक्तियां बहुत ही उत्तम हैं जिनके माध्यम से एक कवि पिता उसे जमाने की हकीकतों, उसकी तकलीफों और उसके ऊंच-नीच से वाकिफ कराता चलता है। ‘उपलब्धि’ शीर्षक कविता की कुछ भावभरी पंक्तियां-‘मेरी संवेदनशीलता तुमसे बंधी है/ तुम्हारी मां की काया तुमसे सधी है/ पर हम नहीं चाहते/ तुम बने हमारा प्रतिरूप/ तुम पाओ प्रकृति से अपने होने की धूप/ अपना छंद ही तुम्हें साधेगा/ वह शत्रु ही होगा/ जो तुम्हें बांधेगा।’
उनकी कविताओं के बारे में आलोचक डॉ. शंभुनाथ का कहना है -अभिज्ञात की कविताओं में स्थानीयता अभी बची हुई है। वे स्थान को इतिहास व स्मृति के हवाले नहीं करते। ‘माझी का पुल’ और ‘हावड़ा ब्रिज’ जैसी कविताएं स्थान को बचाये हुए हैं। ये स्थान लोगों की स्मृतियों में झूलते रहते हैं।
प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह का उनकी कविताओं के बारे में कहना है-सामान्य को कविता में किस प्रकार विशिष्ट बनाया जाता है वह काबिलियत अभिज्ञात ने अर्जित कर ली है। अभिज्ञात की एक और बात जो मुझे आकृष्ट करती है वह यह कि वे साहित्य की अतिरिक्त गंभीरता को तोड़ते हैं। कविताओं में कई जगह हास्य या व्यंग्य करते हैं, जिनमें क्रीड़ा- भाव अनेक स्थानों पर मिलता है और वे बहुत सहज ढंग से बड़ी बात कह जाते हैं।
अभिज्ञात पेशे से पत्रकार हैं। यह अकाट्य सत्य है कि व्यक्ति जिस पेशे से जुड़ा होता है उसका असर उसकी रचनाओं में पड़ता ही है। कवि को जमाने की परख है और उसकी नब्ज की पकड़ है। वह अपनी कविताओं में सिर्फ दृष्टाभाव में नहीं अपितु एक पारखी और समीक्षक के रूप में नजर आता है। जो सत्यम् शिवम् सुंदरम् है कवि उसके पक्ष में और जो अनर्थ, ढकोसला या रूढि़ है उसके विरुद्ध अपनी पूरी ताकत से खड़ा है। उसकी रचनाओं की सबसे बड़ी ताकत यही है कि ये सिर्फ और सिर्फ यथार्थ के धरातल पर अपने पूरे वजूद के साथ खड़ी हैं। ये कविताएं सिर्फ शब्दों की जुगाली नहीं अपितु कवि के जिये या भोगे कालखंड का एक अनुपम शिलालेख है।
‘सपने’, ‘इंतजार’, ‘तस्वीर’,‘नींद की शहादतें’, ‘दंगे के बाद’,‘वेतन और आदमी’,‘ तुम्हारी दुनिया में मैं’, ‘वापसी’, ‘ तोड़ने की शक्ति’ ऐसी कुछ कविताएं हैं जिनका जिक्र किये बिना इस संग्रह की चर्चा अधूरी रह जायेगी। सबमें नया अंदाज और काव्य के नये आयाम अनावृत होते चलते हैं। ‘खुशी ठहरती है कितनी देर’ से गुजरना एक नया काव्यानुभव है जो सुधी पाठकों के चिंतन में कुछ नया जोड़ता है।
Rajesh Tripathi
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