Saturday 31 December 2011

कविताएं जो जेहन में ठहरती हैं देर तक

पुस्तक-समीक्षा
-राजेश त्रिपाठी
पुस्त – खुशी ठहरती है कितनी देर (कविता-संग्रह), लेखक- अभिज्ञात, मूल्य-50 रुपये, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, एफ-77, सेक्टर-9, रोड नंबर 11,करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर-302006।

किसी भी रचना की सार्थकता इस बात पर निर्भर करती है कि वह पढ़ने वाले के जेहन में ठहरती है कितनी देर तक। क्षण भर में काफूर हो जाती है या दिल-दिमाग में उतर कर उससे संवाद करती है। डॉ। अभिज्ञात के कविता-संग्रह खुशी ठहरती है कितनी देर की कविताएं पाठक के जेहन में सिर्फ देर तक ठहरती हैं, बल्कि उससे संवाद करती हैं। अभिज्ञात की कविताओं से गुजरना कहीं अपने अतीत के उन कालखंडों को जीने के समान है, जो हम पीछे छोड़ आये हैं पर जो हमारे अंतर में कहीं एक अमिट शिलालेख की तरह टंक गये हैं। कवि का शिल्प, कथ्य, शैली और शब्द संयोजन सब इतना सधा-सुलझा और असरदार है कि हर कविता में एक नयी जिंदगी धड़कती मिलती है। कविता का एक-एक शब्द जैसे पढ़नेवाले से संवाद करता चलता है। उसके स्वत्व से उसका परिचय कराता हुआ।
कवि में अपनी बात बेबाक, बेलाग पर सलीके से कहने का माद्दा है और उसकी यही खूबी कविताओं की जान है। संग्रह की किसी भी कविता में न विषय की पुनरावृत्ति है न ही एक-सा अंदाजे बयां। विषय कुछ इतना नया, कथ्य कुछ इतना अनोखा कि कई कविताएं तो आपको चमत्कृत कर देंगी। कुछ आपको अपनी हमसाया-सी लगेंगी, कुछ आपसे अठखेलियां करती हुईं तो कुछ सपनों का नया संसार रचती हुईं। कुछ ऐसी जो जाते-जाते आपके सामने छो़ड़ जाती हैं प्रश्नों के दुर्गम विंध्याचल।
यथार्थ के धरातल पर रची गयी कविताओं का शिल्प सशक्त, बुनावट चुस्त-दुरुस्त है। कविताओं की एक विशेषता यह भी है कि इनमें से कुछ की आखिरी पंक्तियां आपको चमत्कृत कर जाती हैं। कवि निरर्थक शब्दजाल नहीं बुनता बल्कि पाठक को हर उस सच से साक्षात्कार कराता है जो जितना कवि है, उतना उसका भी है। यही वजह है कि इनसे पाठक अपना तादाम्य स्थापित कर पाता है, इनमें अपने को महसूससता है। यह कवि की अनूठी कल्पनाशक्ति और नायाब कविताई का ही कमाल है कि विषयवस्तु की दृष्टि से कुछ कविताएं अद्भुत हैं। उनकी शुरुआती पंक्तियां पढ़ कर आप कहेंगे –अरे यह क्या लिख डाला पर अंत तक आते-आते आप यह कहने को विवश होंगे-वाह! क्या लिखा डाला। मिसाल के तौर पर संग्रह की ‘तैयारी’ कविता जो आपको हतप्रभ करती है जिसमें धुले कपड़े इस तरह संवाद करते से लगते हैं जैसे उनमें जान हो। आपसे उनका वैसा ही तादाम्य हो जैसे वे आपके अनन्य-अभिन्न हों, सुख-दुख के मूक साक्षी। इन पंक्तियों पर गौर करें-‘उनका साफ होना एक साथ / होना इस्तिरी / रखा जाना किसी आलमारी या सूटकेस में /डराने लगा / जैसे कि वे कर बैठेंगे कोई गुप्त मंत्रणा।’
रचनाओं की एक विशेषता यह भी है कि कहीं-कहीं आप इनसे पुलकित और द्रवित हो जाते हैं। किस तरह रचनाकार एक निर्जीव वस्तु से ऐसा तादाम्य, ऐसा अपनापा स्थापित कर लेता है, जैसे वह खुद उसमें ही ढल गया हो। ‘निशान’ कविता में घर की जड़ दीवार से कवि को इतना लगाव है जैसे वह उसी का एक अंग हो-‘ उस दिन से कई बार मुझे लगा / मेरी पीठ सहसा तब्दील हो जाती है दीवार में/और दीवार भी शायद बदल जाती है मेरी पीठ में/ मैं चुपके से अक्सर सहला आता हूं/ उस दीवार को/ जैसे मैं अपनी पीठ पर ही/ हाथ फेर रहा होऊं।’
हम में से शायद हर एक आखिरी सांस तक उस खुशी की तलाश में रहता है जो कदम दर कदम उसके साथ चलती है लेकिन वह उसे पहचान नहीं पाता। उस कस्तूरी मृग की तरह जो नाभि में कस्तूरी लिये उसे जंगल-जंगल खोजता फिरता है। संग्रह की शीर्ष कविता ‘खुशी ठहरती है कितनी देर’ व्यामोह में जीते ऐसे लोगों पर ही सवाल करती है-‘शायद खुशी की तलाश में जी जाता है आदमी/ पूरी-पूरी उम्र / और यह सोच कर भी खुश नहीं होता/ जबकि उसे होना चाहिए / कि वह तमाम उम्र/ खुशी के बारे में सोचता/ और जीता रहा / उसकी कभी न खत्म होने वाली तलाश में।’
कवि के हृदय में अपने पीछे छोड़ आये लमहों की कसक है जिन्हें वह बार-बार जीना चाहता है। उसे गांव के पनघट, अमराइयां वापस बुलाती हैं। उसकी रग-रग में दौड़ती हैं मीठे दिनों की यादें जिन्हें वह अपनी परछाईं, अपने ही प्रतिरूप के माध्यम से फिर जीना चाहता है। ‘तुमसे’ शीर्षक कविता की इन पंक्तियों पर गौर करें-‘मैं चाहता हूं अपने गांव की गांगी नदी के पानी में/ फिर से धींगामस्ती करना तुम्हारे माध्यम से/ जहां तुम कभी नहीं गयीं/ चाहता हूं तुम मेरे गांव एक बार जरूर जाओ/ यकीन है अमराई तुम्हें भी पहचान लेगी/ मेरे बिन बताये और तुम भी बिना किसी से पूछे/ पहुंच जाओगी उन सभी जगहों पर जहां मैंने/ अपना बचपन खोया है/ और उसे खोजना तुम्हें भी अच्छा लगेगा।’
संग्रह में बेटी के लिए कुछ भावाभिव्यक्तियां बहुत ही उत्तम हैं जिनके माध्यम से एक कवि पिता उसे जमाने की हकीकतों, उसकी तकलीफों और उसके ऊंच-नीच से वाकिफ कराता चलता है। ‘उपलब्धि’ शीर्षक कविता की कुछ भावभरी पंक्तियां-‘मेरी संवेदनशीलता तुमसे बंधी है/ तुम्हारी मां की काया तुमसे सधी है/ पर हम नहीं चाहते/ तुम बने हमारा प्रतिरूप/ तुम पाओ प्रकृति से अपने होने की धूप/ अपना छंद ही तुम्हें साधेगा/ वह शत्रु ही होगा/ जो तुम्हें बांधेगा।’
उनकी कविताओं के बारे में आलोचक डॉ. शंभुनाथ का कहना है -अभिज्ञात की कविताओं में स्थानीयता अभी बची हुई है। वे स्थान को इतिहास व स्मृति के हवाले नहीं करते। ‘माझी का पुल’ और ‘हावड़ा ब्रिज’ जैसी कविताएं स्थान को बचाये हुए हैं। ये स्थान लोगों की स्मृतियों में झूलते रहते हैं।
प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह का उनकी कविताओं के बारे में कहना है-सामान्य को कविता में किस प्रकार विशिष्ट बनाया जाता है वह काबिलियत अभिज्ञात ने अर्जित कर ली है। अभिज्ञात की एक और बात जो मुझे आकृष्ट करती है वह यह कि वे साहित्य की अतिरिक्त गंभीरता को तोड़ते हैं। कविताओं में कई जगह हास्य या व्यंग्य करते हैं, जिनमें क्रीड़ा- भाव अनेक स्थानों पर मिलता है और वे बहुत सहज ढंग से बड़ी बात कह जाते हैं।
अभिज्ञात पेशे से पत्रकार हैं। यह अकाट्य सत्य है कि व्यक्ति जिस पेशे से जुड़ा होता है उसका असर उसकी रचनाओं में पड़ता ही है। कवि को जमाने की परख है और उसकी नब्ज की पकड़ है। वह अपनी कविताओं में सिर्फ दृष्टाभाव में नहीं अपितु एक पारखी और समीक्षक के रूप में नजर आता है। जो सत्यम् शिवम् सुंदरम् है कवि उसके पक्ष में और जो अनर्थ, ढकोसला या रूढि़ है उसके विरुद्ध अपनी पूरी ताकत से खड़ा है। उसकी रचनाओं की सबसे बड़ी ताकत यही है कि ये सिर्फ और सिर्फ यथार्थ के धरातल पर अपने पूरे वजूद के साथ खड़ी हैं। ये कविताएं सिर्फ शब्दों की जुगाली नहीं अपितु कवि के जिये या भोगे कालखंड का एक अनुपम शिलालेख है।
‘सपने’, ‘इंतजार’, ‘तस्वीर’,‘नींद की शहादतें’, ‘दंगे के बाद’,‘वेतन और आदमी’,‘ तुम्हारी दुनिया में मैं’, ‘वापसी’, ‘ तोड़ने की शक्ति’ ऐसी कुछ कविताएं हैं जिनका जिक्र किये बिना इस संग्रह की चर्चा अधूरी रह जायेगी। सबमें नया अंदाज और काव्य के नये आयाम अनावृत होते चलते हैं। ‘खुशी ठहरती है कितनी देर’ से गुजरना एक नया काव्यानुभव है जो सुधी पाठकों के चिंतन में कुछ नया जोड़ता है।
Rajesh Tripathi
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