Thursday 5 January 2012

उन्मुक्त उड़ान है 'खुशी ठहरती है कितनी देर'


साभार: पुस्तक वार्ता 
समीक्षा
  • बद्रीनाथ वर्मा
खुशी ठहरती है कितनी देर, कवि- डॉ. अभिज्ञात, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन एफ 77 सेक्टर 9 रोड नंबर 11,करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर, मूल्य- 50 / रुपये
नहीं जानता कि ठीक किस / ..किस बिन्दु पर पहुंचना होता है आदमी का खुश होना / कितना फर्क होता है दुख और खुशी में / कि खुशी आदमी को किस अक्षांश और शर्तों / और कितनी जुगत के बाद मिलता है / वह ठहरती है कितनी देर / क्या उतनी जितनी ठहरती है ओस की बूंद हरी घासों पर / या उतनी जितनी फूटे हुए अंडों के बीच चूजे। डॉ. अभिज्ञात की सद्यः प्रकाशित काव्य कृति "खुशी ठहरती है कितनी देर" का यह अंश इस बात की विवेचना करता है कि आदमी मृगमरीचिका की तरह ताउम्र खुशी की तलाश में भटकता रहता है। आखिर खुशी है क्या । दरअसल खुशी का संबंध हमारे मन से ही है। 45 कविताओं वाले इस संग्रह से गुजरने के बाद चीजों को देखने का एक नया नजरिया विकसित होता है। डॉ. अभिज्ञात ने छोटे-छोटे बिम्बों के माध्यम से दृश्यों व वस्तुओं को नवीन उपमानों के जरिए नयी अर्थवत्ता प्रदान की है। कविताओं को पढ़ते हुए साफ महसूस होता है कि कवि का हृदय संवेदनाओं से ओतप्रोत है। मानव हृदय की गहरी समझ के साथ उनमें रचनाशीलता कूट कूट कर भरी हुई है। हर्ष, विषाद, पाने- खोने की खुशी और पीड़ा को नये अर्थ बोध प्रदान करती संग्रह की सभी कविताएं पाठक की अपनी जिन्दगी से जुड़ी लगती हैं। कविताएं पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जैसे पाठक के जीवन चक्र की स्मृतियां साकार हो गयी हों। कविताएं पाठक को कभी उनके अल्हड़ बचपन में ले जाती हैं तो कभी जीवन के कटु सत्य से अवगत कराती हैं। प्रत्येक कविता व्यापक संदर्भ लिए हुए है। आलोच्य कृति की रचनाओं में शब्द अपनी सार्थकता सिद्ध करते हैं। दरअसल अभिज्ञात शब्द की सामर्थ्य और उसकी शक्ति को बखूबी पहचानते हैं। उन्होंने इन्हें अपनी कविताओं में इस कदर प्रतिष्ठापित किया है कि उसका प्रभाव विभिन्न मनोहारी बिम्बों के साथ अनेक नवीन अर्थों को जन्म देता प्रतीत होता है। "खुशी ठहरती है कितनी देर" को पढ़कर यह स्पष्ट आभास होता है कि कवि ने पूरी तन्मयता से इस कृति का सृजन किया है। उन्होंने परम्परा के साथ जो नवीन प्रयोग किये हैं वे उन्हें इस दौर के सर्वाधिक प्रगतिशील और सिद्ध कवि के रूप में प्रतिष्ठापित करते हैं। उन्हें पढ़ते हुए लगता है कि हम बाबा नागार्जुन को पढ़ रहे हैं। उन्हीं के जैसी शब्दों पर पकड़ व संवेदनाओं की समझ साफ दृष्टिगोचर होती है। कहीं-कहीं तो वे नागार्जुन को भी पीछे छोड़ते प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि आलोच्य कृति को पढ़ते समय पूरी शिद्दत से महसूस होता है कि हम इस दौर के सर्वश्रेष्ठ कवि की रचनाओं से साक्षात्कार कर रहे हैं। कविताओं में प्रयुक्त शब्द ब्रह्म सा जीवंत हो उठे हैं। वे इतने स्वाभाविक और सामयिक लगते हैं जिसकी अन्य किसी से तुलना ही नहीं हो सकती। कविताओं में प्रयुक्त ठेठ भोजपुरी के कई शब्द कविता के भावों को और अधिक गहराई प्रदान करते हैं। चूंकि कवि का कार्यक्षेत्र पश्चिम बंगाल खासकर कोलकाता है इसलिए वहां बात-बात पर आये दिन होने वाले बंद व हड़ताल की व्यथा से वे बखूबी वाकिफ हैं। इसी को परिभाषित करती कविता हावड़ा ब्रिज सिर्फ कविता न होकर बंगाल की संस्कृति को अपने में समेटे हुए है। बंद के दौरान हावड़ा ब्रिज से गुजरना / किसी बियाबान से गुजरना है महानगर के बीचोबीच / बंद के दौरान तेज तेज चलने लगती है हवाएं / जैसे चल रही हो किसी की सांसे तेज तेज / और उसके बचे रहने को लेकर उपजे मन में रह रह कर संशय / बंद के दौरान बढ़ जाती है ब्रिज की लंबाई / जैसे डूबने से पहले होती जाती है छायाएं लंबी और लंबी / बंद में कभी गौर से सुनो तो सुनाई देती है एक लंबी कराह / जो रुकने की व्यवस्था के विरुद्ध उठती है ब्रिज से / और पता नहीं कहां कहां से, किस किस सीने से / प्रतिदिन पल पल हजारों लोगों और वाहनों को / इस पार से उस पार ले जाने वाले ब्रिज के कंधे / नहीं उठा पा रहे थे अपने अकेलेपन का बोझ। कवि के शब्दों में कविता ऐसी विधा है जो रचनाकार को रचना का सृजन करने की पूरी आजादी देती है। और कवि ने इस आजादी को संवेदनाओं के पंख देकर भरपूर उड़ान भरी है। निशान कविता में मेरी पीठ सहसा तब्दील हो जाती है दीवार में/ और दीवार भी शायद बदल जाती है मेरी पीठ में/ मैं चुपके से अक्सर सहला आता हूं/ उस दीवार को/ जैसे मैं अपनी पीठ पर ही/ हाथ फेर रहा होऊं। अपनी पीठ की तुलना दीवार से करते हुए कवि ने इसमें संवेदनाओं के उच्च शिखर को छुआ है। इसी तरह संग्रह की एक और कविता बेटी के लिए की ये पंक्तियां- मैं तेरे खेल का गवाह हूं / मैं तेरे हर खेल का मददगार हूं / क्योंकि तू मेरा खेल है / मैं तेरा चेहरा लगाकर छुप गया हूं तेरे अंदर / तू मेरे अंदर है दूसरी काया होकर भी / इसी तरह स्वरलिपियां शीर्षक कविता में- नहीं चाहता बदलना / उन आलमारियों का रंग जिन पर तुमने / चाक से ककहरा लिखना सीखा था / कि मैं कहीं खुद उधड़ने की पीड़ा का दंश ना झेल लूं / नहीं चाहता कि उधेड़े जायें वे स्वेटर / जो तुमने पहने थे अपनी शुरुआती सर्दियों में / नहीं फेंकना चाहता वह कूड़े का अंबार / जो तुम्हें कभी तुम्हारी पहली जिज्ञासाओं / और अबूझ दुनिया का आकर्षण रही / पता नहीं कहां क्या छिपा हो / और तुम्हें / एकाएक मिल जाये / और तुम्हें लगे अरे यह तुम थी / और यह कभी था तुम्हारी दुनिया का अभिन्न अंग / इसी कविता में आगे की ये पंक्तियां- इसलिए मैं चाहता हूं कायम रहे स्मृतियां / आखिरकार तुम्हें जाना ही है किसी और घर/ और हमें रहना होगा स्मृतियों के सहारे / जो असह्य पर तय सा है / आदमी का दुनिया से / और बेटी का अपने ही घर से विदा होना / और हमे तो दोनों के लिए तैयार होते रहना है तिलतिल । अपनी बेटी में अपना बचपन देख रहे एक पिता को यह अहसास है कि बेटी ब्याह के बाद अपने घर चली जायेगी । उसकी स्मृतियों को सहेज कर रखने के लिए व्यक्त अभिव्यक्ति पाठक को भावविह्वल करते हुए संवेदनाओं को गहरे झकझोरती है। इसमें व्यक्त भाव जिस शिद्दत से उभरकर आये हैं वह दिल को छू जाती है। / 45 कविताओं वाले इस संग्रह में जीवन संगीत पूरे रौ में गूंजता है। कविता में कहीं रिश्तों की मिठास है तो कहीं अपने जड़ों से उखड़ने का दर्द। और इन सारी ही स्थितियों को डॉ. अभिज्ञात ने पुरजोर स्वर दिया है।देश की पहचान रहे हमारे गांव भी कहीं खोते से जा रहे हैं। गांवों की पहचान रहे बैलों के गले की मधुर घंटी आधुनिकीकरण की भेंट चढ़ते जा रहे हैं। बैलों की जगह अब ट्रैक्टरों ने ले ली है ।और जब बैल ही नहीं रहे तो नादों को सूना पड़ना ही था। सुबह होते ही खेतों की जुताई के लिए जा रहे बैलों के गलों से गूंजती घंटियों की आवाजें गांवों से गुम हो गयी है। गांवों की पहचान रही चैता और कजरी जैसे लोकगीतों की जगह फूहड़ फिल्मी गीतों ने ले ली है। शहरों की चकाचौंध व रोजी-रोटी की तलाश में गांवों से पलायन ने गांव की पहचान को संकट में ला दिया है। अगर कुछ बचा है तो वह है अन्तहीन इन्तजार। किसी को इन्तजार है कि गांव का वह पुराना गौरव फिर कब लौटेगा। लौटेगा भी या नहीं। इस पीड़ा को डॉ. अभिज्ञात ने इन्तजार शीर्षक कविता में बखूबी स्वर दिया है। कुल मिलाकर खुशी ठहरती है कितनी देर संग्रह की कविताएं अन्तस्थल में गहरे उतरकर ठहर जाती हैं।यह डॉ. अभिज्ञात की सफलता है कि कविताएं पाठक को खुद से जोड़ लेती हैं। आलोच्य कृति की रचनाएं अपने आसपास की ही लगती हैं। लगता है जैसे हमने ही तो इसे जिया है। प्रत्येक कविता व्यापक संदर्भ को व्याख्यायित करती है।
- बद्रीनाथ वर्मा डी / 150 सोनाली पार्क, बांसद्रोनी, कोलकाता- 700070

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